राजा परीक्षित का जनमेजय नामक पुत्र था। जनमेजय हस्तिनापुर के राजा बने। उनके तीन भाई थे: श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन।
जनमेजय पर सारमा का श्राप
एक दिन, जनमेजय के तीनों भाई एक यज्ञ कर रहे थे। उसी समय देवताओं के स्वर्गीय कुत्ते सारमा का एक पिल्ला यज्ञ स्थल के पास आ गया। जनमेजय के भाइयों ने उस पिल्ले को पीटा और भगा दिया।
वह पिल्ला रोते हुए अपनी माँ सारमा के पास गया और सारी बात बताई। सारमा ने पूछा, “बेटा, क्या तुमने उन्हें कोई परेशानी दी? उन्होंने तुम्हें यूँ ही क्यों मारा?”
पिल्ला बोला, “माँ, मैंने कुछ भी गलत नहीं किया।”
यह सुनकर सारमा को बहुत दुःख और क्रोध हुआ। वह अपने पिल्ले को साथ लेकर यज्ञ स्थल पर पहुँची, जहाँ जनमेजय भी मौजूद थे।
सारमा ने जनमेजय से प्रश्न किया, “हे राजा, मेरा पिल्ला केवल जिज्ञासावश यहाँ आया था। उसने कोई गलती नहीं की थी। आपने उसे बिना कारण क्यों मारा?”
जनमेजय और उनके भाइयों ने कोई उत्तर नहीं दिया, बल्कि अहंकार और उपेक्षा दिखाई।
इससे क्रोधित होकर सारमा ने उन्हें श्राप दिया: “तुमने मेरे निर्दोष पुत्र को कष्ट पहुँचाया है, इसलिए तुम पर एक भयंकर आपदा आए!”
इस घटना से जनमेजय को गहरा दुःख हुआ। उन्होंने यज्ञ पूर्ण किया और हस्तिनापुर लौट आए।
जनमेजय और ऋषि श्रुतश्रव
एक दिन जनमेजय शिकार के लिए जंगल गए।
वहाँ उन्हें पता चला कि एक ऋषि श्रुतश्रव अपने पुत्र सोमश्रव के साथ एक आश्रम में रहते हैं। सोमश्रव अत्यंत तपस्वी और ज्ञानी थे।
जनमेजय ने सारमा के श्राप की बात बताकर उनसे अनुरोध किया कि सोमश्रव को हस्तिनापुर भेजा जाए, ताकि वह उस श्राप से उत्पन्न संकट को टाल सकें।
श्रुतश्रव ने कहा: “हे राजन, सोमश्रव मेरे और एक दिव्य नाग के संतान हैं। वह अत्यंत तपस्वी और ज्ञान से परिपूर्ण हैं। वे आपके सभी संकटों को दूर कर सकते हैं — सिवाय उन संकटों के जो भगवान शिव से संबंधित हों। वह ब्राह्मणों को जो कुछ भी मांगें, उसे बिना सोचे दे देंगे। आप उन्हें इस कार्य से रोक नहीं सकते। यदि आप इन शर्तों को स्वीकार करते हैं, तो उन्हें अपने साथ ले जा सकते हैं।”
जनमेजय ने सभी शर्तें स्वीकार कीं और सोमश्रव को हस्तिनापुर ले आए।
ऋषि दौम्य और उनके तीन शिष्य
जनमेजय के राज्य में एक ऋषि दौम्य रहते थे। उनके तीन शिष्य थे: अरुणि, उपमन्यु और वेद।
अरुणि की परीक्षा:
एक दिन दौम्य ने अरुणि को खेत की टूटी हुई मेड़ ठीक करने के लिए भेजा।
अरुणि जब खेत पहुँचे, तो देखा कि मेड़ से पानी बह रहा है। उन्होंने कई प्रयास किए पर पानी नहीं रुका। अंत में उन्होंने स्वयं को मेड़ पर लेटा दिया और अपने शरीर से बहते पानी को रोक लिया।
जब वे देर तक नहीं लौटे, तो दौम्य और उनके अन्य शिष्य उन्हें ढूँढने आए। खेत पर पहुँचने पर उन्होंने देखा कि अरुणि अपने शरीर से पानी रोक रहे हैं।
उनकी निष्ठा से प्रसन्न होकर दौम्य बोले: “तुमने पानी को अपने शरीर से रोका है, इसलिए तुम उद्दालक कहलाओगे। और तुम्हें समस्त वेदों और शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त होगा।”
उन्होंने उन्हें आशीर्वाद दिया।
उपमन्यु की परीक्षा:
फिर दौम्य ने उपमन्यु को गायों की सेवा करने का कार्य दिया। उपमन्यु यह कार्य करते हुए बलवान हो गए।
एक दिन दौम्य ने पूछा, “उपमन्यु, तुम क्या खाते हो?”
उपमन्यु ने उत्तर दिया, “मैं दिन में गायों की सेवा करता हूँ और शाम को भिक्षा माँगकर खाता हूँ।”
दौम्य ने कहा, “शिष्य को पहले अपनी भिक्षा अपने गुरु को देनी चाहिए - यही धर्म है।”
अगले दिन उपमन्यु ने भिक्षा दौम्य को दे दी, और दौम्य ने सारा भोजन खा लिया। यह कई दिन चलता रहा।
इसके बावजूद उपमन्यु स्वस्थ और बलवान बने रहे। दौम्य ने पूछा, “तुम भोजन नहीं करते फिर भी इतने स्वस्थ कैसे हो?”
उपमन्यु बोले, “मैं दूसरी बार भिक्षा माँगकर खा लेता हूँ।”
दौम्य ने कहा, “यह दूसरों के अधिकार का भोजन है - यह अनुचित है।”
उपमन्यु ने वह भी छोड़ दिया। फिर भी वे स्वस्थ रहे।
फिर उन्होंने बताया, “मैं गायों का दूध पी लेता हूँ।”
दौम्य ने कहा, “वह बछड़ों का अधिकार है - यह भी गलत है।”
बाद में उपमन्यु ने कहा, “मैं जब बछड़े दूध पीते हैं, तो जो झाग मुँह से निकलता है, वही खा लेता हूँ।”
दौम्य बोले, “यह भी पाप है - बछड़े वह झाग देवताओं को अर्पित करते हैं।”
अब भूख मिटाने का कोई उपाय न होने पर उपमन्यु ने एक्के (मदार) के पत्ते खा लिए जिससे वह अंधे हो गए और एक कुएँ में गिर पड़े।
जब वे लौटकर नहीं आए तो दौम्य उन्हें ढूँढने गए। उन्होंने पुकारा और कुएँ से उत्तर आया, “गुरुजी, मैं यहाँ कुएँ में हूँ। एक्के के पत्ते खाकर मेरी दृष्टि चली गई और मैं गिर गया।”
दौम्य को दया आई और उन्होंने कहा, “बेटा, अश्विनीकुमारों की आराधना करो और दृष्टि प्राप्त करो।”
उपमन्यु ने ऐसा ही किया। अश्विनीकुमार प्रकट हुए और उन्होंने एक दिव्य मिठाई दी, जो दृष्टि लौटा सकती थी।
लेकिन उपमन्यु ने कहा, “हे देवगण, बिना गुरु की आज्ञा के मैं इसे नहीं खा सकता।”
अश्विनीकुमार बोले, “तुम्हारे गुरु ने भी एक बार बिना आज्ञा के हमारा प्रसाद खाया था। तुम भी खा सकते हो।”
फिर भी उपमन्यु नहीं माने और गुरु की आज्ञा के बिना कुछ भी खाने से इनकार कर दिया।
उनकी भक्ति और अनुशासन से प्रसन्न होकर अश्विनीकुमारों ने उन्हें आशीर्वाद दिया और उनकी दृष्टि लौटा दी।
उपमन्यु कुएँ से बाहर निकले और अपने गुरु को प्रणाम किया।
दौम्य ने उन्हें आशीर्वाद दिया, “तुम्हें समस्त वेदों और शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त हो।”
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